राहुल सांकृत्यायन के यात्रा साहित्य में पहाड़ी लोक
संस्कृति
श्रीनिधि पाण्डेय1, आभा तिवारी2
1शोधार्थी, दूधाधारी बजरंग महिला स्नात. महाविद्यालय, रायपुर
2प्राध्यापक, दूधाधारी बजरंग महिला स्नात. महाविद्यालय, रायपुर
प्रस्तावना
यात्रा का जीवन से अविच्छिन्न संबंध है आदिकाल से ही मनुष्य यायावर रहा है। प्रकृति का सौंदर्य उसे हमेशा आकर्षित करता रहा है, इसी आकर्षण ने जब अभिव्यक्ति प्राप्त की तब यात्रा साहित्य एक विधा के रूप में विकसित हुआ।
हिन्दी यात्रा साहित्य को संपन्न बनाने में बहुत से यात्रा साहित्यकारों ने अपना योगदान दिया। इन साहित्यकारों में महापंडित राहुल सांकृत्यायन जी का नाम प्रधान माना जाता है। राहुल जी ने विपुल यात्रा साहित्य लिखकर इस विधा के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं उनका यात्रा साहित्य देश-विदेश की सांस्कृतिक संपदा से भरा हुआ है। विभिन्न देशों की संस्कृति का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन राहुल जी के यात्रा साहित्य में देखने को मिलता है।
देश-विदेश के लोगों के रहन-सहन, रीति-रिवाज, वेशभूषा, आचार-विचार, धर्म-दर्शन, पर्व, परम्पराओं के माध्यम से राहुल जी ने अपने यात्रा साहित्य को सांस्कृतिक रूप से संपन्न बनाया है। राहुल जी ने अपने यात्री जीवन में अधिकतर पहाड़ी क्षेत्रों की यात्राएँ की है। इन पहाड़ी क्षेत्रों की लोक संस्कृति, रीति-रिवाज, रहन-सहन, धर्म एवं दर्शन का स्पष्ट और विस्तृत वर्णन अपने यात्रा साहित्य में किया है।
‘दोर्जीलिंग परिचय’, ‘कुमाऊँ’, ‘जौनसार’, ‘देहरादून’, किन्नर देश में’, ‘गढ़वाल’, ‘हिमालय’, ‘मेरी तिब्बत यात्रा’, ‘नेपाल’, ‘मेरी लद्दाख यात्रा’ जैसी कृतियों में पहाड़ी लोक जीवन तथा लोक संस्कृति का उद्घाटन किया है। उनकी कृति ‘हिमाचल’ और ‘किन्नर देश में’ में उन्होंने विशेष रूप से पहाड़ी लोक संस्कृति, लोकगीत, लोकभाषा तथा विभिन्न मान्यताओं एवं देवी-देवताओं का वर्णन किया है। राहुल जी हिमाचल के बारे में कहते है-
‘‘सांस्कृतिक रूप से बहुत मोहक है। रहन-सहन, रीति-रिवाज, मेले त्यौहार सब मिलकर हिमाचल की एक विशेष जीवन संस्कृति का दर्शन कराते है।’’
अपनी कृति ‘किन्नर देश में’ उन्होंने किन्नर लोक संस्कृति और देवी-देवताओं की मान्यताओं का सविस्तार वर्णन किया है।
‘‘किन्नर देवताओं का देश है, आलंकरिक नहीं सीधी भाषा में।’’2
देवी-देवताओं के नाम पर यहाँ आए दिन पर्व मनाया जाता है, भोज होता है। कहीं-कहीं मेले भी लगते रहते हैं। यहाँ के देवता मनुष्य से बातचीत करते हैं, साथ ही यहाँ पर पूजा की उतनी महŸाा नहीं जितनी बलि देने की है।
‘‘पहाड़ी लोगों की गहरी आस्था इन देवी-देवताओं में होती है, चूंकि पहाड़ी लोगों के मनोरंजन के लिए और कोई साधन नहीं होता। इसलिए अगर देखा जाए तो वे लोग अपने इन रीति-रिवाजों में ही खुशियाँ ढूँढते हैं।
राहुल जी के अनुसार ये पहाड़ी लोग अंधकार के वासी है, जो अज्ञानता से पूर्ण है, साथ ही सुविधाओं का यहाँ बहुत अभाव है, इसके बाद भी ये हैं तो मनुष्य ही खुशियों का रास्ता ढूँढ ही लेते हैं।
‘‘सचमुच यदि किन्नर के देवता गुप्त हो जायें, तो यहाँ के सामाजिक जीवन में इतना बड़ा स्थान रिक्त हो जायेगा कि लोगों को जीवन बहुत रूखा लगेगा। देवता का मतलब यह है-हर दूसरे तीसरे मास नियमित भोज, गाना-नाचना। देवता का अर्थ है-समय-समय पर छोटे-बड़े महोत्सव। इन सभी में नर-नारी सामूहिक रूप से सम्मिलित होते है।
वहीं किन्नर लोकगीतों के बारे में भी राहुल जी ने बताया है कि यहाँ पर लोकगीत कई प्रकार के होेते हैं जैसे-जन्म के गीत, विवाह गीत, त्यौहार गीत, देवी-देवताओं के गीत, मृत्यु के गीत आदि।
चूंकि किन्नर प्रदेश हिमाचल का एक उपेक्षित भाग है परन्तु यहाँ के लोगों के कंठ बहुत ही मधुर है। ‘‘किन्नर-कंठ मधुर है किन्नर गीत-मधुर है साथ ही वह अत्यन्त सरल और अकृत्रिम है। उसमें कोई उत्सादी कलाबाजी नहीं है।’’4
किन्नर प्रदेश का एक प्रसिद्ध देवी गीत का उदा.-
‘‘दो गोल्मो दङ शोङ् भाजो कोष्टिङ्पे।
देवियों चंडिके, शुभ बोर्शङ् बाहरे।
वहाँ से वहाँ, कोठी के माझे।’’5
इसी तरह अपनी कृति हिमाचल में भी राहुल जी ने अनेकों पहाड़ी लोकगीतों का वर्णन किया है। उदा.-
‘‘भट्टियात राजा तेरे गोरखियों ने लुट्या पहाड़।
तीसा लुट्या बैग लुट्या। लुट्या मांदल किहोर।
पांगीदी पंगवालियाँ लुटिया लुटी बाँकी नार।
राजे तेरे गोरखियों ने लुट्या पहाड़।।’’6
इन लोकगीतों की सुन्दरता और माधुर्य के बारे में जितनी प्रशंसा की जाए कम है, क्योंकि ये स्थान अंधकार पूर्ण है। साथ ही अज्ञानता से भरा हुआ यहाँ का समाज है। फिर भी ये लेाग कहाँ से और कैसे कल्पना के द्वारा इतने सुन्दर और मधुर गीतों का निर्माण करते है। यह सच में आश्चर्य की बात है।
राहुल जी जिन्होंने स्वयं देश-विदेश की इतनी यात्राएँ की हर सभ्य समाज को देखा, भौतिक सुख-सुविधाओं से पूर्ण समाज देखा, बड़े-बड़े ज्ञानियों, कलाकारों, संगीतकारों से मिले उसके बाद इन पहाड़ी क्षेत्रों के लोकगीतों को सुना और इतने अधिक प्रभावित हुए। राहुल जी के इस प्रभावित होने से ही स्पष्ट होता है कि वाकई में ये लोकगीत कितने मधुर हैं। इन लोकगीतों की ही तरह राहुल जी ने संपूर्ण पहाड़ी क्षेत्रों के लोगों की जीवन शैली, उनके आचार-विचार, रीति-रिवाजों, मान्यताओं का सुस्पष्ट और विस्तृत वर्णन अपने यात्रा साहित्य में किया है।
इसी तरह अपनी हिमाचल यात्रा के दौरान उन्होंने कांगड़ा में मनाए जाने वाले पर्व का उल्लेख किया है। ‘‘कांगड़ा में बहुत तरह के मेले और त्यौहार होते हैं।.....अश्विन के प्रथम दिन सैर का त्यौहार मनाया जाता है। उस दिन सबेरे हाथ में टोकरी लेकर नाई चारों ओर घूम आता है, जिसमें गलगल रख दिया जाता है, और वह त्यौहार के आने की सूचना देता है।’’7सैर त्यौहार कांगड़े का एक विशेष और बड़ा त्यौहार है।
इसी तरह कुल्लु में भी पहाड़ी प्रदेशों में देवता की मान्यता बहुत है और यहाँ आए दिन कोई ना कोई उत्सव का आयोजन होता रहता है। आए दिन मेले लगते है। कुल्लु में दशहरे के समय जो मेला लगता है वहाँ देवता भी आते हैं, पूरी तरह सजधज कर। और यहाँ के स्त्री-पुरुष भी सजधज कर मेले में आते हैं देवता का स्वागत करते हैं। यहाँ की स्त्रियाँ सजने की शौकीन होती हैं। मेले में स्त्री-पुरुष दोनों शराब और सिगरेट पीते हुए झूम-झूमकर नाचते है। राहुल जी लिखते है-
‘‘स्त्री पुरुष शराब पी-पीकर खूब मस्त थे, जगह-जगह नाच हो रहा था। स्त्रियों की नाक में दुअन्नी-भर की गोल लवंग जरूर होती थी, और किसी-किसी ने तो नाक में तीन-तीन छेद करवायें थे।......दूसरा माथे का आभूषण था टिकली। पोशाक-पाजाम, कुर्ता और सिर पर रूमाल।.... यहाँ के स्त्री-पुरुष दोनों सिगरेट के शौकीन हैं।’’8
अपनी मसूरी यात्रा में राहुल जी को पहाड़ी लोगों के दीवाली और होली पर्व को देखने का मौका मिला। पहाड़ी लोगों की दीवाली उस दिन नहीं होती जिस दिन उसे सारा भारत मनाता है। बल्कि हमारी दीवाली के लगभग एक महीने बाद इनकी दीवाली होती है। इसी तरह कई स्थानों पर होली और दीवाली दोनों त्यौहार एक साथ मनाए जाते है।
इस तरह राहुल जी ने पहाड़ी क्षेत्रों की अपनी यात्राओं में पहाड़ी लोक संस्कृति को नजदीक से देखा, अनुभव किया और अपने यात्रा साहित्य में विस्तृत वर्णन किया।
‘‘राहुल जी का यात्रा साहित्य उनकी यात्रा संबंधी विभिन्न गतिविधियों से साक्षात्कार कराने वाला साहित्य है। उन्होंने अपने साहित्य में देश की अस्मिता, संस्कृति, आम लोगों के जीवन, वहाँ के रीति-रिवाज, उत्सवों एवं त्यौहारों का विशद विवेचन किया है। उनका यात्रा-साहित्य गन्तव्य स्थलों के सांस्कृतिक, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक एवं भौगोलिक स्थितियों से परिचय करवाता है।’’9
संदर्भ:-
1. सांकृत्यायन राहुल, हिमाचल-1, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2009, पृ. 126
2. सांकृत्यायन राहुल, किन्नर देश में, किताब महल, इलाहाबाद, संस्करण-2006, पृ. 59
3. वही, पृ. 168
4. वही, पृ. 328
5. वही, पृ. 354
6. सांकृत्यायन राहुल, हिमालय-2, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2001, पृ. 226
7. सांकृत्यायन राहुल, हिमाचल-1, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 2009, पृ. 195
8. सांकृत्यायन राहुल, मेरी जीवन यात्रा-2, राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, दूसरी आवृत्ति, 2010, पृ. 134
9. उŸार पूर्वांचल, राहुल सांकृत्यायन, स्मृति अंक, अर्धवार्षिक पत्रिका सिलीगुड़ी, सितम्बर-1993, पृ. 74।
Received on 15.03.2013
Revised on 05.04.2013
Accepted on 09.04.2013
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Research J. Humanities and Social Sciences. 5(2): April-June, 2014, 241-243